श्री लोढण पार्श्वनाथ
श्री लोढण पार्श्वनाथ – डभोई प्रभु प्रत्तिमा की कलाकृति व् उपलब्ध इतिहास आदि से प्रतीत होता है की यह तीर्थ अति प्राचीन है| कहा जाता है की, यह वही प्रतिमा है, जो राजा वीरधवल के मंत्री थी तेजपाल ने यहाँ के एक विशाल दुर्ग का जिणोरद्वार कराते वक़्त एक भव्य जिनालय का भी निर्माण कर उसमे प्रतिष्टित की थी| यह भी कहा जाता है की यह प्रतिमा दीर्घ समय तक जलगर्भ में रही|
जो अकस्मात् राजा सागरदत्त सार्थवाह के समय जलगर्भ से पुन: प्रकट हुई| इसका चमत्कार और प्रभाव देखकर राजा सागरदत्त ने भव्य जिनालय का निर्माण करा कर इस चमत्कारिक प्रतिमा को पुन: प्रतिष्टित कराया| इस तीर्थ का अंतिम जिणोरद्वार वीर निर्वाण सं. २४५६ (वि.सं. १९९०) में हुआ|�प्रभु पार्श्व की बालू की बनी यह भव्य प्रतिमा�दीर्घ समय तक जलगर्भ में रहने पर भी, बालू का एक कण भी प्रतिमा से अलग नहीं हुआ व जलगर्भ से प्रकट होने पर लोहे जैसी प्रतीत होने लगी जिससे भक्त गन प्रभु को लोढण पार्श्वनाथ कहने लगे| कहा जाता है की किसी समय यह एक विशाल जैन नगरी थी| मंत्री श्री पैथडशाह द्वारा वीर निर्वाण सं. १७८६ (वि.सं. १३२०) में यहाँ श्री चन्द्रप्रभ भगवान का एक भव्य मंदिर बनवाने का उल्लेख मिलता है|
“स्याद्वाद रत्नाकर” सुप्रसिद्ध जैन न्याय ग्रन्थ के रचियता श्री वादीदेवसूरीजी के गुरु श्री मुनिचन्द्रसूरीश्वर्जी की यह जन्मभूमि है|कार्तिक शिरोमणि उपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज का स्वर्गवास वीएर निर्वाण सं. २२१२ (वि.सं. १७४३) में यहीं हुआ|
अन्य मंदिर इसके निकट ही एक प्राचीन शामला पार्श्वनाथ भगवान का मंदिर है व उसके अतिरिक्त ३ और मंदिर है|
प्रभु प्रतिमा की कला अत्यंत अद्भूत व् निराले ढंग की है|
श्री लोढण पार्श्वनाथ – डभोई प्रभु प्रत्तिमा की कलाकृति व् उपलब्ध इतिहास आदि से प्रतीत होता है की यह तीर्थ अति प्राचीन है| कहा जाता है की, यह वही प्रतिमा है, जो राजा वीरधवल के मंत्री थी तेजपाल ने यहाँ के एक विशाल दुर्ग का जिणोरद्वार कराते वक़्त एक भव्य जिनालय का भी निर्माण कर उसमे प्रतिष्टित की थी| यह भी कहा जाता है की यह प्रतिमा दीर्घ समय तक जलगर्भ में रही|
जो अकस्मात् राजा सागरदत्त सार्थवाह के समय जलगर्भ से पुन: प्रकट हुई| इसका चमत्कार और प्रभाव देखकर राजा सागरदत्त ने भव्य जिनालय का निर्माण करा कर इस चमत्कारिक प्रतिमा को पुन: प्रतिष्टित कराया| इस तीर्थ का अंतिम जिणोरद्वार वीर निर्वाण सं. २४५६ (वि.सं. १९९०) में हुआ|�प्रभु पार्श्व की बालू की बनी यह भव्य प्रतिमा�दीर्घ समय तक जलगर्भ में रहने पर भी, बालू का एक कण भी प्रतिमा से अलग नहीं हुआ व जलगर्भ से प्रकट होने पर लोहे जैसी प्रतीत होने लगी जिससे भक्त गन प्रभु को लोढण पार्श्वनाथ कहने लगे| कहा जाता है की किसी समय यह एक विशाल जैन नगरी थी| मंत्री श्री पैथडशाह द्वारा वीर निर्वाण सं. १७८६ (वि.सं. १३२०) में यहाँ श्री चन्द्रप्रभ भगवान का एक भव्य मंदिर बनवाने का उल्लेख मिलता है|
“स्याद्वाद रत्नाकर” सुप्रसिद्ध जैन न्याय ग्रन्थ के रचियता श्री वादीदेवसूरीजी के गुरु श्री मुनिचन्द्रसूरीश्वर्जी की यह जन्मभूमि है|कार्तिक शिरोमणि उपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज का स्वर्गवास वीएर निर्वाण सं. २२१२ (वि.सं. १७४३) में यहीं हुआ|
अन्य मंदिर इसके निकट ही एक प्राचीन शामला पार्श्वनाथ भगवान का मंदिर है व उसके अतिरिक्त ३ और मंदिर है|
प्रभु प्रतिमा की कला अत्यंत अद्भूत व् निराले ढंग की है|
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