श्री गोडीजी पार्श्वनाथ पायधुनी
Godiji Parshwanath Mumbai
पायधुनी - आचार्य विजय वल्लभ चौक (मुंबई)
मुंबई नगर के महाराजा श्री गोडीजी पार्श्वनाथ पायधुनी की आंगी के दर्शन ।
परिचय :
मुंबई के जैन समाज कि अस्मिता के रुप में खड़ा श्री गोड़ीजी जिनालय, मुंबई के इतिहास को दर्शाता है। इस जिनप्रासाद के साथ मुंबई कि भव्यता का इतिहास जुड़ा है। बड़ी-बड़ी इमारतों और लोगों व आवागमन के साधनों से उभरता, आज का ४४० किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला मुंबई महानगर किसी जमाने में छोटे-बड़े सात टापुओं में विभक्त था। ई. स. १४७९ में पहली बार पुर्तगाली लोग समुद्री मार्ग से मुंबई आये थे। धीरे-धीरे उन्होंने इस टापु पर अपना अधिकार जमाया और इस प्रकार मुंबई पर पुर्तगाली शासन कि शुरुआत हुई। ई.स. १६०५ में पुर्तगाल कि राजकुमारी काइंग्लैण्ड के राजकुमार से विवाह हुआ। मुंबई को अपनी जागीर समझते पुर्तगाल ने उस विवाह कि खुशी में मुंबई इंग्लैंड के राजकुमार को दहेज में दे दिया गया। इसके बाद मुंबई ब्रिटिश हुकुमत कि अधीनता में आ गया। ई.स. १६९२ में दीप बंदरगाह से रुपजी धनजी नामक व्यापारी मुंबई आये थे। जैन व हिन्दुओं में मुंबई आने वाले वे पहले श्रेष्ठी थे। व्यापारिक सफलताओं के लिए मुंबई कि ख्याती दिनों दिन बढ़ती गई। साहसिक व्यापारियों कि यह पहली पसंद बन गई। उस जमाने में फोर्ट मुंबई का सबसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र था। सभी बड़े व्यापारी वहीं निवास करते थे। वहां एक माईल के क्षेत्रफल में एक परकोटा (कोट) बनाया गया था। सुरक्षा के लिए उस परकोटे (कोट) के चारों ओर बड़ी खायी थी। उस परकोटे के तीन द्वार थे। बाजार गेट, चर्च गेट, एपोलो गेट। मुंबई में जैन समाज काइतिहास ई.स. १७४४ के आसपास प्रारंभ होता है। इस अरसे में यहां जैन श्रेष्ठियों के आगमन कासिलसिला शुरु हो गया था। अधिकांश जैनों ने फोर्ट के परकोटे (कोट) में ही अपना निवास बनाया। ई.स. १७५८ में महान् पुण्यशाली शेठ मोतीशाह के पिता शेठ अमीचंदभाई खंभात से अपने परिवार के संग मुंबई आये। यहां 7 वर्ष तक नौकरी करने के बाद उन्होंने अपने स्वतंत्र व्यवसाय कि भव्य शुरुआत कि।- Also Read:- Dhanna Angar Story - Mahaveer Prabhu ke Shraman
- Also Read:- श्री शत्रुंजय महातीर्थ की भावयात्रा
आगे चलकर यहां कि मखमली माटी पर इस परिवार के कदमों के निशान यशस्वी जैन इतिहास का शिलालेख बन गये। शेठ अमीचंदभाई ने आराधना के लिए अपने घर में गृह जिनालय बनाया था। इसका प्रमाण श्री गोड़ीजी संघ के बहीखातों से मिलता है। ई.स. १७७५ के आस पास जैन श्रेष्ठी कल्याणजी कानजी भी घोघा से मुंबई आये। इसके बाद शेठ अमीचंदभाई के महत्त्वपूर्ण योगदान से फोर्ट में मुंबई के सर्वप्रथम जिनालय का निर्माण हुआ। उस जिनालय के मूलनायक श्री गोड़ी पार्श्वनाथ भगवान थे। इस प्रकार गोड़ी पाश्र्वनाथ प्रभु से मुंबई के स्वर्णिम जैन इतिहास का पहला अध्याय शुरु हुआ और शेठ मोतीशाह के परिवार के साथ गोड़ी पार्श्वनाथ प्रभु कि प्रतिमा के संबंध भी अमर बन गये।
ई.स. १८०३ में फोर्ट में भयंकर आग लग गई। तीन दिन और तीन रात चली इस आग से करीब ४० लाख रुपयों का नुकसान हुआ। इसमें जैन, वैष्णव और ब्राह्मण समाज के भी ४०० से अधिक लकड़ी के मकान जलकर खाक हो गये। आग से हुई उस तबाही के कारण वहां के जिनालय के मूलनायक प्रभु श्री गोड़ी पाश्र्वनाथ को सुरक्षित पायधुनी-भुलेश्वर लाया गया। बस, इसी गोड़ी पाश्र्वनाथ प्रभु के पदार्पण के बाद समग्र विश्व के जैन समाज में पायधुनी ‘गोड़ीजी’ के सुहावने नाम से प्रसिद्ध हो गया। उस अरसे में आये भयानक समुद्री तुफान के कारण लोग भी फोर्ट छोड़कर पायधुनी – भुलेश्वर में बसने लगे। २९ जनवरी १८०६ को पायधुनी में गोड़ी पाश्र्वनाथ प्रभु काभव्य जिनप्रासाद बनाने काशुभ संकल्प लेकर शेठ मोतीशाह के बड़े भ्राता नेमचंदभाई ने मकानों कि खरीदी शुरु कि। ४ अक्टूबर १८११ को गोड़ीजी जिनालय के लिए अविचलदास गोविंदजी भंसाली से जगह खरीदकर नेमचंदभाई ने अपने नाम दस्तावेज रजिस्टर्ड करवाया। इसके बाद कुछ ही महिनों में जिनालय कानिर्माण संपन्न हो गया। इस पवित्र स्थापत्य को ईंट और चूने से बनाया गया। इसमें बड़ी मात्रा में महंगी लकड़ी का उपयोग किया गया। तल मंजिल में उपाश्रय और धर्मशाला तथा पहली मंजिल में काष्ठ का कलात्मक जिनमंदिर तैयार हुआ। छत, फर्श और स्तम्भ लकड़ी के बनाये गये। नयनरम्य पेइंटिंग्स और लकड़ी में उत्किर्ण कि गई नक्काशी ने गोड़ीजी जिनालय को अत्यंत भव्य बना दिया। फिर आई वो शुभ घड़ी, जब ई.स. १८१२ (विक्रम संवत् १८६८) में द्वितीय वैशाख सुद १०, बुधवार के पावन दिन प्रात: ८.३० बजे बड़े ही धूमधाम से प्रकट प्रभावी श्री गोड़ी पार्श्वनाथ प्रभु कि महा मंगलकारी प्रतिष्ठा हुई। मुंबई में साधना और समृद्धि के नये सूरज का उदय हुआ, जिसकि रोशनी से हजारों-लाखों आत्माएं धन्य बन गईं। कर्म के लेख लिखने मुंबई आने वालों ने धर्म के लेख भी बड़ी खूबी से लिखे। कि सी को यह पता नहीं था कि ई.स. १८१२ के मंगल मुहूर्त में प्रतिष्ठित होने जा रहे श्री गोड़ी पार्श्वनाथ प्रभु हजारों लाखों जिंदगीयों का आशीयाना बन जाएंगे। महान् प्रभावक आचार्य श्री विजय देवसूरिजी महाराज के श्रद्धानिष्ठ यति श्रीपूज्य देवेन्द्रसूरिजी के करकमलों से गोड़ी पाश्र्वनाथ काप्रतिष्ठापन हुआ। उसी पावन वेला में ‘श्री विजय देवसूर संघ’ कि स्थापना भी हुई। घोघा के कल्याणजी कानजी परिवार ने गोड़ी पाश्र्वनाथ प्रभु कि प्रतिष्ठा कामहान् लाभ प्राप्त कि या और जिनालय पर यशस्वी ध्वजारोहण शेठ मोतीशाह और उनके भ्राता नेमचंदभाई व देवचंदभाई ने कि या। उसी यादगार दिन से पायधुनी का‘गोड़ीजी’ श्री विजय देवसूर तपागच्छ संघ कि उज्ज्वल परंपरा और विशुद्ध समाचारी काप्रमुख केन्द्र है। जहां कि नीतियों और व्यवस्थाओं काअनुसरण देश-विदेश के सभी तपागच्छ संघ आज भी करते आ रहे हैं।
विशिष्टा :
शेठ मोतीशाह को श्री गोड़ी पार्श्वनाथ प्रभु पर अपार श्रद्धा थी। उन्होंने अपने पुत्र खेमचंदभाई के नाम बनाई वसीयत में भी श्री गोड़ी पाश्र्वनाथ भगवान कि कृपा कातीन बार उल्लेख कि या है। भायखला में आज जहां श्री आदिनाथ प्रभु काभव्य जिनप्रासाद है, वहां कभी शेठ मोतीशाह काउद्यान था। प्रारंभिक वर्षों में शेठ मोतीशाह भायखला से पैदल चलकर प्रतिदिन श्री गोड़ी पाश्र्वनाथ भगवान कि पूजा-भक्ति के लिए के लिए पायधुनी आया करते थें। उन्होंने भायखला के श्री आदीश्वर जैन मंदिर के पिछवाड़े स्थित अपनी जमीन कातीसरा हिस्सा भी श्री गोड़ी पाश्र्वनाथ जिनालय, पायधुनी को अर्पित कि या था। ऐसे धर्मनिष्ठ कर्मयोगी शेठ मोतीशाह काजब ५४ वर्ष कि आयु में ई. स. १८३६ में स्वर्गवास हुआ तो उनके सम्मान में मुंबई के सभी बाजार और देश के अनेक बड़े बाजार बंद रहे थे। शेठ मोतीशाह कि तरह ही घोघा निवासी शेठ कल्याणजी कानजी और उनके सुपुत्र त्रिकमभाई व दीपचंदभाई (उर्फे बालाभाई, शत्रुंजय तीर्थ पर बालावसही टूंक के निर्माता) को भी श्री गोड़ी पार्श्वनाथ प्रभु के प्रति अपार श्रद्धा-भक्ति थी। वे सभी श्री गोड़ीजी संघ के कार्यों में विशेष रुची लेते थें। शेठ कल्याणजी कि सुश्राविका कुंवरभाई, जो रामकोर काकि के लोकप्रिय नाम से प्रसिद्ध थीं, गोड़ीजी संघ में श्राविकावर्ग काप्रतिनिधित्व करती थी। उस जमाने में श्री गोड़ीजी संघ के संचालक में श्रद्धानिष्ठ उदार हृदयी रामकोर काकि का महत्वपूर्ण योगदान हुआ करता था। इसी तरह पाटण के श्रेष्ठी पे्रमचंद रंगजी और मांगरोल के श्रेष्ठी ताराचंद मोतीचंद भी मुंबई के प्रथम पंक्ति के प्रभावशाली श्रावक थे। ये सभी श्री गोड़ीजी संघ के कार्यों में विशेष रुची लेते थे। शेठ कल्याणजी कि सुश्राविका कुंवरबाई, जो रामकोर काकिके लोकप्रिय नाम से प्रसिद्ध थीं, गोड़ीजी संघ में श्राविक वर्ग काप्रतिनिधित्व करती थी। उस जमाने में श्री गोड़ीजी संघ के संचालन में श्रद्धानिष्ठ उदार हृदयी रामकोर काकि कामहत्त्वपूर्ण योगदान हुआ करता था। इसी तरह पाटण के श्रेष्ठी पे्रमचंद रंगजी और मांगरोल के श्रेष्ठी ताराचंद मोतीचंद भी मुंबई के प्रथम पंक्ति के प्रभावशाली श्रावक थे। ये सभी गोड़ीजी के प्रति विशेष अहोभाव रखते थे। शेठ ताराचंद मोतीचंद ने तो ई.स. १८१० में हिन्दु रसोईदार व अपने विश्वसनीय नौकरों को साथ लेकर व्यापार हेतु चीन कि यात्रा भी कि थी। वे आठ वर्ष चीन में रहे थे। इस दौरान अपनी आराधना के लिए उन्होंने चीन के केन्टोन शहर में श्री पाश्र्वनाथ प्रभु कि पंचधातु कि एक मनोहारी प्रतिभा भी स्थापित कि थी। ई.स. १८७४ तक वह जिन प्रतिमा वहां सुरक्षित थी। शेठ मोतीशाह के मामा खंभात के श्रेष्ठी परतापमल जोइतादास और घोघा के श्रेष्ठी फुलचंद कपुरचंद भी श्री गोड़ी पाश्र्वनाथ प्रभु के परम भक्त थें। गोड़ीजी के लिए उनके भी उल्लेखनीय योगदान रहे हैं। इन दोनों श्रेष्ठियों ने शत्रुंजय गिरी पर मोतीशाह कि टूंक में जिनालयों का निर्माण भी करवाया था। मुंबई के शाह सोदागर शेठ श्री केशवजी नायक भी श्री गोड़ी पाश्र्वनाथ प्रभु के अनन्य उपासक थे। व तन-मन-धन से गोड़ीजी कि सेवा में सदैव तत्पर रहते थें। उन्होंने शत्रुंजय गिरी पर टूंक कानिर्माण कर ऐतिहासिक सुकृत्य किया था। शेठ किकाभाई प्रेमचंद भी श्री गोड़ीजी देवसूर संघ से जुड़ा एक यशस्वी नाम है। अनेक वर्षों तक वे इस संस्थान के पदाधिकारी रहे। ब्रिटेन कि महारानी ने उनको ‘सर ’ कि उपाधि से नवाजा था। उनके नाम से ही गुलालवाड़ी कानामकरण ‘किकास्ट्रीट’ के रुप में हुआ।अनेक राजनीतिक और प्रशासनिक मामलों में जैन समाज के प्रतिनिधि बनकर उन्होंने सफलताएं प्राप्त कि थी। ज्यों – ज्यों मुंबई में गोड़ीजी के भक्त बढ़ते गए, त्यों-त्यों गोड़ीजी कि आमदनी भी बढ़ती गई। लेकि न आमदनी को इकठ्ठा करने के बजाय गोड़ीजी ने देश भर के छोटे-बड़े जिनालयों के जीर्णोद्धार हेतु सहयोग देना शुरु कि या। योगदान कि यह महान परंपरा करीब १७२ वर्षों से अविरत जारी है। गोड़ीजी के सान्निध्य में धर्म-आराधना के साथ-साथ मानवता के कार्य भी निरंतर होते रहे हैं। ई.स. १८९६ में मरकि रोग के भयंकर उपद्रव के समय गोड़ीजी के उपाश्रय में राहत केन्द्र खोलकर बेहतर सेवाएं दी गई थी। उसके बाद भी जब-जब भूकंप, अतिवर्षा या महामारी कादुर्भाग्यपूर्ण समय आया तो गोड़ीजी में मानव-सेवा कि ज्योत सबसे पहले प्रज्ज्वलित हुई। सांप्रदायिक दंगो से प्रभावित बेसहारा लोगों के लिए यहां कई बार महिने-महिने तक भोजन-पानी कि व्यवस्थाएं कि गई। ई.स. १९४८ में तो गोड़ीजी में बाकायदा मानव राहत समिति काविधिवत गठन कर दिया गया। ईसा कि १८वीं शताब्दी के उत्तराद्र्ध में सौराष्ट्र के वंथली शहर से शेठ देवकरण मूलजी मुंबई आये थे। फेरी करके वे टोपियों बेचने काकाम करते थे। आगे जाकर वे कपड़े कि ६ मीलों के सेलिंग एजेंट बन गये थें। उस जमाने में उन्होंने सात लाख रु. कादान कि या था। मृत्यु से पूर्व उन्होंने शिक्षा, चिकि त्सा, धर्म और समाज-कल्याण क कार्यों के लिए १४ लाख रुपयों काट्रस्ट बनाकर सभी को उदारता व दानधर्म कि प्रेरणा दी थीं। उसी ट्रस्ट के आधार पर मलाड़ (पश्चिम) में श्री जगवल्लभ पाश्र्वनाथ काकलात्मक जिनालय, उपाश्रय और साधर्मिक बन्धुओं के निवास तैयार हुए।
- Also Read:- भक्तामर स्तोत्र का इतिहास व इस स्तोत्र की महिमा एंव भक्तामर स्तोत्र लिरिक्स।
- Also Read:- Prabhu Paswanath
५ अप्रैल १९३४ को वही ट्रस्ट श्री गोड़ीजी देवसूर संघ को सुपुर्द कर दिया
गया। आज गोड़ीजी के तत्त्वावधान में मलाड़ का श्री देवकरण मूलजी जैन ट्रस्ट
अपना स्वतंत्र प्रभार व्यवस्थित संभाल रहा है। स्वतंत्रता सेनानी और
जाने-माने साहित्यकार श्री मोतीचंद गीरधरलाल कापडिया ने श्री गोड़ीजी देवसूर
संघ के संचालन और प्रारंभिक संविधान के निर्माण में महती भूमिकानिभाई थी। समय
काप्रवाह चलता रहा। गोड़ीजी के आसपास और मुंबई में बड़ी मात्रा में जैन
परिवारों कानिवास होता गया। एक ओर धन कि समृद्धि बढ़ती गई दूसरी ओर धर्म कि
सरिता भी बहती गई। ई.स. १९०६ में शिरोमणी पन्यास प्रवर श्री कमलविजयजी महाराज
कागोड़ीजी-पायधुनी में पहला वर्षावास हुआ। इसके बाद अनेक नामी-अनामी
साधु-संतों ने ज्ञान कि गंगा बहाकर गोडीजी संघ को पल्लवित कि या। ई.स. १९३६
के वर्षावास में पंन्यास क्षमाविजयजी ने तिथी के संबंध में अलग प्ररुपणा कि।
बावजूद इसके गोड़ीजी के श्री विजय देवसूर संघ ने अपनी समाचारी के अनुसार ही
पर्युषण महापर्व कि आराधना कर परंपरा को जीवंत रखा। श्री गोड़ीजी भक्तियोग और
तपयोग के साथ-साथ ज्ञानयोग कि साधना काभी प्रमुख केन्द्र रहा है। यहां
साधु-साध्वीजी के विद्याभ्यास हेतु विशेष व्यवस्थाएं कि गई थीं। इतना ही
नहीं, यहां बाल-युवा-कन्या और महिला वर्ग के लिए भी अलग-अलग धार्मिक
पाठशालाएं खोली गईं। तत्वज्ञान, न्याय, व्याकरण और संस्कृत-प्राकृत भाषा के
अध्ययन हेतु पाठशालाएं चलाकर गोड़ीजी ने धर्म कि परंपराओं को मजबूत करने
कागौरवपूर्ण कार्य कि या। आचार्य श्री विजय धर्मसूरिजी महाराज के गोड़ीजी में
ऐतिहासिक वर्षावास हुए। उन्होंने जिनालय के जीर्णोद्धार और उपाश्रय के
नवनिर्माण कि महती प्रेरणा दी। गोडीजी के १५० वर्षो काभव्य महोत्सव भी आप के
सान्निध्य में मनाया गया। आचार्य श्री विजय नेमीसूरिजी महाराज के अनेक आचार्य
भगवंतों ने भी वर्षावास कर सुकृत्यों कि प्रेरणा दी और संघ को उपकृत कि या।
आचार्य श्री सागरानंदसूरिजी महाराज के चातुर्मास में गोड़ीजी मित्र मंडल कि
स्थापना हुई। इस मंडल ने संघ के अनेक छोटे-बड़े कार्यो में सहभागिता
निभाई।
आचार्य श्री विजय वल्लभसूरिजी महाराज का चातुर्मास समाजोद्धार के कार्यो के लिए आज भी याद किया जाता है। कालांतर में लकड़ी का बना जिनालय जीर्ण हो गया। बड़े जिन प्रासाद कि आवश्यकता भी सतत महसूस होने लगी। अंत: मूलनायक श्री गोड़ी पाश्र्वनाथ प्रभु कि प्रतिमा को उत्थापित किए बगैर देवविमान तुल्य श्वेत संगमरमरीय पाषाण के देदिप्यमान जिनालय का निर्माण हुआ। उसका भव्य अंजनशलाका-प्रतिष्ठा महोत्सव विक्रम संवत् २०४५ (ई.स.१९८९) में आचार्य प्रवर श्री सुबोधसागरसूरीश्वरजी महाराज के सान्निध्य में भव्यता से संपन्न हुआ। इसके सोलह वर्ष बाद विक्रम संवत् २०६१ (ई.स. २००५) में आचार्य श्री सूर्योदयसागरसूरीश्वरजी महाराज के करकमलों से स्वर्ण पाश्र्वनाथ भगवान के अंजनशलाका-प्रतिष्ठा महोत्सव कि ऐतिहासिक संयोजना हुई। अब स्वनामध्यन्य महापुरुष, आचार्य श्री पद्धसागरसूरिजी महाराज के सान्निध्य में श्री गोड़ीजी का१८ दिवसीय द्विशताब्दी महामहोत्सव एक अविष्मरणीय आयोजन है। इस स्मृति को जीवंत रखेने के लिए श्री विश्वमंगल नवग्रह पाश्र्वनाथ भगवान व श्री शुभंस्वामी गणधर कि प्रतिमा कि अंजनशलाका-प्रतिष्ठा होन जा रही है। इस अवसर पर जसपरा निवासी मातुश्री गजराबेन गीरधरलाल जीवणलाल परिवार द्वारा १,३५,००० परिवारों में मीठाई कावितरण और लगभग ८ लाख ४० हजार मूर्तिपूजक जैन साधर्मिक भाई-बहनों काश्रीसंघ स्वामीवात्सल्य जैन इतिहास कास्वर्णिम अध्याय लिखने जा रहा है। यह सुकृत्य कर जसपरा, सौराष्ट्र के गजराबेन परिवार ने अपनी आने वाली पीढियों को भी अमर बना दिया है।
0 Comments