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Guru Rajendra Eek Divya Jyoti Bhag - 5 | Jain Stuti Stavan

ॐ ह्रीं अर्हम् नम:

प्रथम खंड

जन्म जीवन झांकी

एकदा रत्नराज ने पिताजी के समीप बैठकर विनम्रता के साथ कहा कि पिताजी यद्यपि अपना व्यापार यहाँ भी अच्छा चल रहा है फिर भी हमे देश विदेश की व्यापार सम्बंधी व्यापकताओं का निरीक्षण करना चाहिए जिससे व्यापार मे और उन्नति कर सके बड़े भाई ने भी स्वर में स्वर मिलाते हुए जाने का सुझाव रखा |

माता पिता की ममता उनको घर छोड़कर अन्यत्र भेजने की नही थी लेकिन दोनों पुत्रों का अदम्य उत्साह देखकर अनिच्छा से आज्ञा प्रदान की ।

दोनों भाई ने माता पिता के शुभाशीर्वाद लेकर शुभ लग्न में प्रस्थान किया ।

सम्मेत शिखर, राजगृही, पावापुरी आदि तीर्थां की यात्रा करते हुए कलकत्ता पहुँचे |

कुछ महिने उन्होंने वहाँ जवाहरतों का व्यापार किया ।

भाग्य और कुशाग्र बुद्धि के बल से दोनों ने अच्छा लाभ प्राप्त किया ।

फिर कलकत्ता से जहाज के द्वारा सिलोन गये

इस यात्रा में बहुत सा भारतीय माल अपने साथ लिया । सिलोन पहुँच माल की बिक्री की ।

भाग्य ने उनका साथ दिया | जितना सोचा था उससे अधिक लाभ कमाया ।

सीलोन प्रवास में दोनों भाइयों ने अपने कारोबार को भली प्रकार से विस्तार दिया |

 इसी बीच भरतपुर में केशरबाई और ऋषभदासजी का स्वास्थ्य खराब होने लगा ।

जब स्थिति गंभीर होने लेंगी तो दोनों भाइयों को तार द्वारा सीलोन सूचना भेजी गई ।

तार मिलते ही दोनों भाई चिन्तित हो गये । उन्होंने शीघ्र सीलोन का व्यापार समेटा ।

 वहाँ से कलकत्ता के लिए प्रस्थान किया |

कलकत्ता पहुँचकर दोनों भाइयों ने आवश्यक लेन देन का निपटारा किया और अपनी कमाई का सारा धन समेट कर शीघ्रता से भरतपुर के लिए प्रस्थान किया ।

समयानुसार भरतपुर आ पहुँचे |

यहाँ आकर दोनों भाई माता-पिता की सेवा में जुट गये |

माता-पिता का शरीर दिन प्रतिदिन जीर्ण हो रहा था ।

एक दिन रात्रि का चतुर्थ प्रहर माता-पिता की सेवा में नियोजित माणकजी व रत्नराज को हल्की नींद की झपकी आ गई ।

इसी बीच केशराबाई को जोर से खाँसी उठी खाँसी ने उनकी नींद को तोड़ दी वे दौड़ते हुए माँ के पास आए ।
केसरबाई ने कहा बेटा जी घबरा रहा है ।

रत्नराज समझ गये कि अन्तिम समय आ गया है ।

माता को अंतिम आराधना कराना प्रारम्भ कर दिया ।

सूर्योदय होते होते केसरबाई की आत्मा ने परलोक प्रयाण कर लिया ।

घर में दुःख का सागर उमड़ पडा | भाई बहनों को क्षण क्षण में माता की याद सताने लगी ।

इसी वियोग में संध्या हो गई ।

दोनों भाई चबूतरे पर बैठे थे कि प्रेमा दौड़ती हुयी बाहर आई और हांफते हुए कहने लगी - भैय्या ! भैय्या !! देखो तो !!। पिताजी को क्या हो गया है? दोनों भाई दोड़कर अन्दर कक्ष में जाते है अन्य परिजन भी भागे आये ।

श्वास के उठाव से बेचैन थे वे |

उपचार किये पर सब व्यर्थ गये |

सुबह होते - होते अरिहन्त-अरिहन्त बोलते उनके प्राण पंखेरु उड़ गये |

शोक में शोक बढ़ गया । पूरा परिवार शोकाकूल हो गया |

कल माता गई और आज पिताजी गये । किसी को कल्पना भी नहीं थी सो घट गया ।

अपने अनन्य माता-पिता का जीवन अंत इतने नजदीक से इतना शीघ्र देखकर रत्नराज चिन्तन में डूब गये |

क्या जीवन का सत्य यही है |

जब जीवन के साथ मृत्यु इतने अभिन्न भाव से जुडी हुई है तब यह धन सम्पत्ति व्यवसाय नाम प्रतिष्ठा सब किसलिए ।

इस प्रकार रत्नराज जीवन और जगत सम्बन्धी असंख्य प्रश्नों की उलझन में उलझा गए |

कहीं कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था ।


पुस्तक आधार : गुरु राजेन्द्र एक दिव्य ज्योति
विषय : गुरुदेव राजेन्द्रसूरी म.सा संक्षिप्त जीवन परिचय एवं विरल व्यक्तित्व पुस्तक
संकलन एवं प्रुफ संशोधक : मातृह्दया सा. कोलमलता श्रीजी म.सा की शिष्या परिवार
संपादक : JAIN STUTI STAVAN



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