ॐ ह्रीं अर्हम् नम:
गुरु राजेन्द्र एक दिव्य ज्योति
रत्नराज द्वितीय
के चन्द्रमा की भांति धीरे-धीरे बड़े होते जा रहे है ।
स्वजन परिजन सभी
के प्यारे नयनों के तारे बन गये ।
'पुत्र के पग पालने में इस युक्ति को
चरितार्थ करते हुए बचपन में बालक जहाँ इधर... उच्चः खेलते-कूदते-दौड़ते वहाँ बालक रत्नराज
एकान्त पाकर अज्ञात चिन्तन मनन में लीन रहते ।
रत्नराज जब ५
वर्ष के हुए तब घर में नियमित शिक्षा की व्यवस्था की गई ।
प्रखर बुद्धि के
कारण मात्र तेरह वर्ष की उम्र में व्यवहारिक अध्ययन पूर्ण कर लिया ।
एक दिन ऋषभदासजी
ने कहा “बेटा माणक”” रत्नराज अब चौदह वर्ष का हो गया है अब इसे अपने साथ दुकान पर बैठाना
शुरु करो जिससे व्यवहारिक
ज्ञान भी बढ़ेगा और तुम्हे भी सहयोग मिलेगा ।
पिताश्री की बात
को सुनकर माणकचंद ने कहा पिताजी आपकी आज्ञा हो तो दुकान पर बैठने से पूर्व रत्नराज को
तीर्थयात्रा करवा लेना उत्तम रहेगा ।
ऋषभदासजी ने कहा
तुम्हारी बात उचित है । तुम दोनों भाई मिलकर केशरीयाजी की यात्रा कर आओ |
पिताजी की आज्ञा
शिरोधार्य करके शुभ मुहूर्त में दोनों भाईयों ने यात्रा के लिए प्रस्थान किया | उदयपुर पहुँचे |
उदयपुर से घुलेवा
का मार्ग बड़ा विकट
एवं विषम था |
आदिवासियों का भय
यात्रियों को परेशान करता था,
अतः एक दो व्यक्तियों का जाना संभव नहीं था ।
माणकचन्दजी
उदयपुर से विशाल समुदाय के साथ केशरियाजी की जय बोलते हुए आगे बढ़ रहे थे ।
यात्रियों का एक
समूह आगे बढ़ता हुआ राह भटक गया जिसमें माणकचंद एवं र॒त्नराज भी थे ।
लुटेरों ने उन्हे
घेर लिया | सभी ने बचने के लिए अथाक
प्रयास किया लेकिन सब निष्फल था ।
आखिर घबराकर एक महुवा के झाड़
के नीचे बैठे |
इसी बीच अमरपुर
के सौभागमलजी की पुत्री रमा अचानक बेहोश होकर गिर पड़ी ।
एक चिन्ता के बीच
दूसरी चिन्ता ने घेर
लिया. ।
माणकचन्दजी सह
सभी यात्री चिन्तित थे ।
सौभागमलजी की
हालत खराब थी ।
किसी को कोई उपाय
नहीं सूझ रहा था|
पुस्तक का नाम : गुरु राजेन्द्र एक दिव्य ज्योति
विषय : गुरुदेव राजेन्द्रसूरीजी म.सा संक्षिप्त जीवन परिचय एवं विरल व्यक्तित्व पुस्तक
संकलन एवं प्रुफ संशोधक : मातृह्दया सा. कोलम लता श्रीजी म.सा की शिष्या परिवार
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