कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र
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*जन्म एवं परिवार*
गतांक से आगे...
चांगदेव के मुनि दीक्षा ग्रहण का समय प्रबंध चिंतामणि, प्रबंधकोश आदि में उल्लिखित नहीं है, परंतु इन ग्रंथों में प्राप्त प्रसंगानुसार पाहिनी ने चांगदेव को गुरु चरणों में समर्पित किया उस समय बालक की अवस्था आठ वर्ष की थी। इस आधार पर मुनि दीक्षा ग्रहण का समय वीर निर्वाण 1624 (विक्रम संवत् 1154, ईस्वी सन् 1097) था। ज्योतिष कालगणना के आधार पर विक्रम संवत् 1154 माघ शुक्ला चतुर्दशी को शनिवार का योग पड़ता है, अतः यह संवत् ही होना चाहिए। प्रभावक चरित्र में उल्लिखित मुनि दीक्षा ग्रहण का समय विक्रम संवत् 1150 माघ शुक्ला चतुर्दशी शनिवार ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से विवादास्पद है।
आचार्य मेरुतुं ने आचार्य हेमचंद्र का दीक्षा स्थान कर्णावती माना है। इतिहास विशेषज्ञ प्रभाचंद्राचार्य आदि अधिकांश जैन विद्वानों के अभिमतानुसार हेमचंद्र का दीक्षा संस्कार खम्भात में हुआ।
गुरु द्वारा नवदीक्षित बालक चांगदेव का दीक्षा नाम सोमचंद्र रखा गया। मुनि सोमचंद अपने शीतल स्वभाव के कारण यथार्थ में सोमचंद्र थे। उनकी प्रतिभा प्रखर थी। तर्कशास्त्र, लक्षणशास्त्र एवं साहित्य की अनेक विधाओं का उन्होंने गंभीर अध्ययन किया। एक पद से शत-सहस्र पदों का बोध कराने वाली शीघ्रग्राही बुद्धि को प्राप्त करने के लिए मुनि हेमचंद्र ने सोचा 'काश्मीर निवासिनी विद्याधिष्ठात्री सरस्वती देवी की आराधना करनी चाहिए।' उन्होंने अपने विचार देवचंद्रसूरि के सामने रखे। गुरु का आदेश प्राप्त कर कई गीतार्थ मुनियों के साथ उन्होंने काश्मीर की ओर प्रस्थान किया। रेवतावतार नामक तीर्थ स्थान पर नेमिचैत्य में रुके। रात्रि में सोमचंद्र ने ध्यान किया। उस समय सरस्वती देवी ने प्रत्यक्ष होकर कहा "निर्मलमति वत्स! तुम्हें देशांतर में जाने की आवश्यकता नहीं है। तुम्हारी भक्ति पर मैं संतुष्ट हूं। तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी।" यह कहकर देवी अदृश्य हो गई। सोमचंद्र मुनि को इस प्रकार सरस्वती की कृपा प्राप्त हुई। यथेप्सित वरदान की उपलब्धि हो जाने के बाद मुनि सोमचंद्र ने आगे की जाने वाली काश्मीर यात्रा स्थगित कर दी। वे पुनः गुरु चरणों में लौट आए। कुछ ही वर्षों में सोमचंद्र दिग्गज विद्वानों की गणना में आने लगे। गुरु ने धर्मधुरा धौरेय श्रमण सोमचंद्र को योग्य समझकर वीर निर्वाण 1636 (विक्रम संवत् 1166) बैशाख तृतीया के दिन मध्याह्न में आचार्य पद पर नियुक्त किया।
आचार्य पद प्राप्ति के समय सब प्रकार के ग्रह बलवान् थे एवं लग्न वृद्धिकारक थे। इस समय उनकी अवस्था 21 वर्ष की थी। आचार्य पद प्राप्ति के बाद उनका नाम हेमचंद्र हुआ।
आचार्य हेमचंद्र ने अपनी माता पाहिनी को भी इस अवसर पर आर्हती दीक्षा प्रदान की। उसे प्रवर्तिनी पद पर प्रतिष्ठित किया। नवोदीयमान आचार्य हेमचंद्र की कीर्ति दिन-प्रतिदिन विस्तार पाने लगी।
*आचार्य हेमचंद्र के समकालीन राजवंश* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
संकलन - श्री पंकजजी लोढ़ा
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