श्री नेमीनाथ परमात्मा
सौर्यपुर के अन्धकवृष्णि राजा के दस दशार्ह पुत्रों में वसुदेव तथा समुद्रविजय मुख्य थे।
वसुदेव के दो रानियाँ थीं-एक रोहिणी और दूसरी देवकी।
पहली से बलदेव और दूसरी से कृष्ण का जन्म हुआ।
समुद्रविजय की रानी का नाम शिवा था, जिसने नेमि को जन्म दिया।
जब नेमिकुमार आठ वर्ष के हुए तो कृष्ण द्वारा कंस का वध किये जाने पर जरासन्ध को यादवों पर बहुत क्रोध आया।
उसके भय से यादव पश्चिम समुद्र तट पर स्थित द्वारका नगरी में जाकर रहने लगे।
कुछ समय पश्चात् कृष्ण और बलदेव ने जरासन्ध का वध किया और वे आधे भारतवर्ष के स्वामी हो गये।
नेमिकुमार जब बड़े हुए तो एक बार खेलते-खेलते वे कृष्ण की आयुधशाला में पहुँचे,
और वहाँ रखे हुए धनुष को उठाने लगे।
आयुधपाल ने कहा, ‘‘कुमार,आप क्यों व्यर्थ ही इसे उठाने का प्रयत्न करते हैं?कृष्ण को छोड़कर अन्य कोई पुरुष इस धनुष को नहीं उठा सकता।’’
परन्तु नेमिकुमार ने आयुधपाल के कहने की कोई परवाह न की।
उन्होंने बात की बात में धनुष को उठाकर उस पर बाण चढ़ा दिया, जिससे सारी पृथ्वी काँप उठी।
तत्पश्चात् उन्होंने पांचजन्य शंख फूँका, जिससे समस्त संसार काँप गया।
आयुधपाल ने तुरन्त कृष्ण से जाकर कहा। कृष्ण ने सोचा कि जिसमें इतना बल है वह बड़ा होकर मेरा राज्य भी छीन सकता है, अतएव इसका कोई उपाय करना चाहिए।
कृष्ण ने यह बात अपने भाई बलदेव से कही।
बलदेव ने उत्तर दिया, ‘‘देखो,नेमिकुमार बाईसवें तीर्थंकर होनेवाले हैं, और तुम नौवें वासुदेव। नेमि बिना राज्य किये ही संसार का त्याग कर दीक्षा ग्रहण करेंगे,अत डर की कोई बात नहीं है।’’
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