श्री नेमीनाथ परमात्मा
परन्तु कृष्ण की शंका दूर न हुई।
एक बार की बात है, नेमिकुमार और कृष्ण दोनों उद्यान में गये हुए थे।
कृष्ण ने उनके साथ बाहुयुद्ध करना चाहा।
नेमि ने अपनी बायीं भुजा फैला दी और कृष्ण से कहा कि यदि तुम इसे मोड़ दो तो तुम जीते।
परन्तु कृष्ण उसे जरा भी न हिला सके।नेमिकुमार अब युवा हो गये थे।
समुद्रविजय आदि राजाओं ने कृष्ण से कहा कि देखो,नेमि सांसारिक विषय-भोगों की ओर से उदासीन मालूम होते हैं, अतएव कोई ऐसा उपाय करो जिससे ये विषयों की ओर झुकें ।
कृष्ण ने रुक्मिणी, सत्यभामा आदि अपनी रानियों से यह बात कही।
रानियों ने नेमि को अनेक उपायों से लुभाने की चेष्टा की, परन्तु कोई असर न हुआ।
कुछ समय बाद कृष्ण के बहुत अनुरोध करने पर नेमिकुमार ने विवाह की स्वीकृति दे दी।
उग्रसेन राजा की कन्या राजीमती से उनके विवाह की बात पक्की हो गयी।
फिर क्या, विवाह की धूमधाम से तैयारियाँ होने लगीं।
नेमिकुमार कृष्ण, बलदेव आदि को साथ लेकर हाथी पर सवार हो विवाह के लिए आये।
बाजे बज रहे थे, शंख-ध्वनि हो रही थी, मंगलगान गाये जा रहे थे और जय-जय शब्दों का नाद सुनाई दे रहा था।
नेमिकुमार महाविभूति के साथ विवाह-मण्डप के नजदीक पहुँचे।
दूर से ही नेमि के सुन्दर रूप को देखकर राजीमती के हर्ष का पारावार न रहा।
इतने में नेमिकुमार के कानों में करुण शब्द सुनाई पड़ा।
पूछने पर उनके सारथी ने कहा,‘महाराज, आपके विवाह की खुशी में बाराती लोगों को मांस खिलाया जाएगा।यह शब्द बाड़े में बन्द पशुओं का है।’’
नेमिकुमार सोचने लगे, ‘‘इन निरपराध प्राणियों को मारकर खाने में कौन-सा सुख है?’’
यह सोचकर उनके हृदय-कपाट खुल गये, उन्हें संसार से विरक्ति हो गयी।
उन्होंने एकदम अपना हाथी लौटा दिया।
घर जाकर उन्होंने अपने माता- पिता की आज्ञापूर्वक दीक्षा ले ली और साधु बनकर रैवतक पर्वत (गिरनार-जूनागढ़) पर वे तप करने लगे।
2 Comments
very nice
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