१. श्री ऋषभदेव जी ( आदिनाथ )
वर्तमान में अवसर्पिणी काल का पंचम आरक प्रवहमान है | सदगुरू सुमति में प्रकट प्रकाश के आधस्त्रोत्र के दर्शन हेतु हमें सुदीर्घ अतीत मे लौटना है | सुषम-दुषम नामक त्रतीय आरक का अधिकांश भाग व्यतीत हो चुका था | चौरासी लाख पुर्व तीन वर्ष और साढे आठ मास शेष थे | उस अवधि में आषाढ क्रष्ण चतुर्थी के दिन अन्तिम से च्यवकर एक महान पुण्यवान आत्मा का अवतरण हुआ | दिशाएं आलोकित हो उठीं | प्रक्रति मुस्कुरा उठी | नरक की निदाघ ज्वालाओं में जल रहे प्राणियों ने भी मुहुर्त्त भर के लिए सुख का अनुभव किया | रात्रि के पश्चिम प्रहर में माता मरुदेवी ने चौदह स्वपन देखे | वे
स्वपन इस प्रकार थे -
(१)दुग्ध धवल व्रषभ को अपने मुख में प्रवेश करते हुए देखा ,
(२) चार दांतो वाला गजराज ,
(३)केसरी सिंह ,
(४)कमलासन पर विराजित लक्ष्मी ,
(५)पुष्प माला ,
(६) पुर्ण चन्द्र ,
(७)देदीप्यमान सुर्य ,
(८) लहराती हुई ध्वजा ,
(९)स्वर्ण कलश ,
(१०)पदम-सरोवर ,
(११)क्षीर सागर ,
(१२) देव विमान ,
(१३)रत्नराशि और
(१४) धुमरहित अग्नि | तीर्थंकर देव जन्म से ही मति , श्रुत और अवधि -इन तीन ज्ञानों से सम्पन्न होते हैं
महाराज नाभिराय और मरुदेवी के नन्दन रिषभ भी उक्त तीन ज्ञानों के धारक थे |
युवावस्था में यौगलिक परम्परानुसार रिषभदेव का विवाह सहजाता सुमंगला नामक कन्या से हुआ | सुनन्दा नामक एक अन्य कन्या से भी उनका विवाह हुआ | कालक्रम से सुमंगला ने भरत और ब्राह्मी को तथा सुनन्दा ने बाहुबली आदि ९८ पुत्रों और सुन्दरी नामक पुत्री को जन्म दिया | नगर -निर्माण और रज्य -व्यवस्था का सुत्रपात रिषभदेव ने किया | जनता की प्रार्थना पर वही सर्वप्रथम राजा भी बने | कर्मयुग के प्रवर्तन मे रिषभदेव ने भरत , बाहुबली , ब्राह्मी ,सुन्दरी आदि अपने पुत्र -पुत्रियों का सहयोग लिया और उनको विभिन्न दायित्व सौंपे |
८३ लाख पुर्व की अवस्था तक रिषभदेव ग्रहवास में रहे | इस अवधि में उन्होनें संसार को कर्म का पाठ पढाया | कर्म की द्रष्टि से विश्व के व्यवस्थापन के पश्चात रिषभदेव ने आत्मकल्याण और धर्मशासन की स्थापना का संकल्प किया | भगवान के मन: संकल्प को ज्ञात कर जीत व्यवहार के पालन हेतु नौ लौकान्तिक देवों ने उपस्थित हो भगवान के संकल्प का अनुमोदन किया | तत्पश्चात एक वर्ष तक वर्षीदान देकर रिषभदेव ने चैत्र क्रष्णा नवमी के दिन प्रव्रज्या अंगीकार की | भगवान रिषभदेव की प्रव्रज्या अवसर्विणी काल की द्रष्टि से आध्यात्मिक -उत्क्रान्ति का प्रथम क्षण था | रिषभदेव अध्यात्म के शिखरारोहण हेतु मौन और ध्यान में संलग्न रहने लगे | क्योंकि रिषभदेव युग के प्रथम भिक्षु थे , इसलिए वह युग भिक्षु के स्वरुप , मर्यादा और भिक्षाव्रत्ति आदि से अनभिज्ञ था | सो भगवान रिषभदेव पारणक हेतु नगर मे पधारते , तो लोग एक सम्राट के समान उनका अभिनन्दन तो करते , हाथी , घोडे , मणि - माणिक्य उन्हें भेंट करते , परन्तु एषणीय आहार बहराने का किसी को विचार नहीं आता | भगवान भिक्षा हेतु द्वार-द्वार पर जाते , पर भिक्षा प्राप्त न होने से लौट जाते | इससे लोग निराश होते | भगवान उनके द्वारों पर आते हैं , पर बिना कोई भेंट लिए लौट जाते हैं , इससे लोगो के ह्रदय वेदना से भर जाते थे | यह क्रम निरन्तर एक वर्ष तक चलता रहा|
भगवान रिषभदेव के धर्मशासन में लाखों भव्य जीवों ने आत्म-कल्याण का पथ- प्रशस्त करके निर्वाण रुपी परम लाभ प्राप्त किया | प्रभु रिषभ काल की द्रष्टि से आदि गुरु हैं | उन्होनें विश्व को अकर्मण्यता के अन्धकार से निकालकर कर्म और धर्म के पथ पर चलने के लिए प्रेरित किया | कर्म और धर्म -इन दोनों द्रष्टियों से वे विश्व के आदि संस्कर्त्ता , प्रवर्तक और सदगुरू हैं | अध्यात्म के आलोक की प्रथम किरण उन्हीं से प्रकट हुई | उनके बाद के तेईसों तीर्थंकर ने उन द्वारा प्रकट सत्य को पुन: -पुन: उदघाटित किया | जो प्रभु रिषभ ने कहा , वही शेष तीर्थंकरो ने भी कहा | वर्तमान मे उपलब्ध आगम वाड:मय भी उसी सत्य का उदघोष है |
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