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Shree Rishabhdev Bhagvan | श्री ऋषभदेव जी ( आदिनाथ ) | JAIN STUTI STAVAN

१. श्री ऋषभदेव जी ( आदिनाथ )

Shree Rishabhdev Bhagvan | श्री ऋषभदेव जी ( आदिनाथ ) | JAIN STUTI STAVAN


वर्तमान में अवसर्पिणी काल का पंचम आरक प्रवहमान है | सदगुरू सुमति में प्रकट प्रकाश के आधस्त्रोत्र के दर्शन हेतु हमें सुदीर्घ अतीत मे लौटना है | सुषम-दुषम नामक त्रतीय आरक का अधिकांश भाग व्यतीत हो चुका था | चौरासी लाख पुर्व तीन वर्ष और साढे आठ मास शेष थे | उस अवधि में आषाढ क्रष्ण चतुर्थी के दिन अन्तिम से च्यवकर एक महान पुण्यवान आत्मा का अवतरण हुआ | दिशाएं आलोकित हो उठीं | प्रक्रति मुस्कुरा उठी | नरक की निदाघ ज्वालाओं में जल रहे प्राणियों ने भी मुहुर्त्त भर के लिए सुख का अनुभव किया | रात्रि के पश्चिम प्रहर में माता मरुदेवी ने चौदह स्वपन देखे | वे 

स्वपन इस प्रकार थे -

(१)दुग्ध धवल व्रषभ को अपने मुख में प्रवेश करते हुए देखा , 
(२) चार दांतो वाला गजराज ,
(३)केसरी सिंह , 
(४)कमलासन पर विराजित लक्ष्मी ,
(५)पुष्प माला ,
(६) पुर्ण चन्द्र ,
(७)देदीप्यमान सुर्य , 
(८) लहराती हुई ध्वजा ,
(९)स्वर्ण कलश , 
(१०)पदम-सरोवर , 
(११)क्षीर सागर , 
(१२) देव विमान , 
(१३)रत्नराशि और 
(१४) धुमरहित अग्नि | तीर्थंकर देव जन्म से ही मति , श्रुत और अवधि -इन तीन ज्ञानों से सम्पन्न होते हैं
 महाराज नाभिराय और मरुदेवी के नन्दन रिषभ भी उक्त तीन ज्ञानों के धारक थे |

युवावस्था में यौगलिक परम्परानुसार रिषभदेव का विवाह सहजाता सुमंगला नामक कन्या से हुआ | सुनन्दा नामक एक अन्य कन्या से भी उनका विवाह हुआ | कालक्रम से सुमंगला ने भरत और ब्राह्मी को तथा सुनन्दा ने बाहुबली आदि ९८ पुत्रों और सुन्दरी नामक पुत्री को जन्म दिया | नगर -निर्माण और रज्य -व्यवस्था का सुत्रपात रिषभदेव ने किया | जनता की प्रार्थना पर वही सर्वप्रथम राजा भी बने | कर्मयुग के प्रवर्तन मे रिषभदेव ने भरत , बाहुबली , ब्राह्मी ,सुन्दरी आदि अपने पुत्र -पुत्रियों का सहयोग लिया और उनको विभिन्न दायित्व सौंपे |

८३ लाख पुर्व की अवस्था तक रिषभदेव ग्रहवास में रहे | इस अवधि में उन्होनें संसार को कर्म का पाठ पढाया | कर्म की द्रष्टि से विश्व के व्यवस्थापन के पश्चात रिषभदेव ने आत्मकल्याण और धर्मशासन की स्थापना का संकल्प किया | भगवान के मन: संकल्प को ज्ञात कर जीत व्यवहार के पालन हेतु नौ लौकान्तिक देवों ने उपस्थित हो भगवान के संकल्प का अनुमोदन किया | तत्पश्चात एक वर्ष तक वर्षीदान देकर रिषभदेव ने चैत्र क्रष्णा नवमी के दिन प्रव्रज्या अंगीकार की | भगवान रिषभदेव की प्रव्रज्या अवसर्विणी काल की द्रष्टि से आध्यात्मिक -उत्क्रान्ति का प्रथम क्षण था | रिषभदेव अध्यात्म के शिखरारोहण हेतु मौन और ध्यान में संलग्न रहने लगे | क्योंकि रिषभदेव युग के प्रथम भिक्षु थे , इसलिए वह युग भिक्षु के स्वरुप , मर्यादा और भिक्षाव्रत्ति आदि से अनभिज्ञ था | सो भगवान रिषभदेव पारणक हेतु नगर मे पधारते , तो लोग एक सम्राट के समान उनका अभिनन्दन तो करते , हाथी , घोडे , मणि - माणिक्य उन्हें भेंट करते , परन्तु एषणीय आहार बहराने का किसी को विचार नहीं आता | भगवान भिक्षा हेतु द्वार-द्वार पर जाते , पर भिक्षा प्राप्त न होने से लौट जाते | इससे लोग निराश होते | भगवान उनके द्वारों पर आते हैं , पर बिना कोई भेंट लिए लौट जाते हैं , इससे लोगो के ह्रदय वेदना से भर जाते थे | यह क्रम निरन्तर एक वर्ष तक चलता रहा|

बैसाख शुक्ल त्रतीया के दिन मध्याह्न मे प्रभु भिक्षार्थ पधारे | हस्तिनपुर के राजप्रासाद के समीप आए | बाहुबलि के पौत्र राजकुमार श्रेयांस की द्रष्टि प्रभु पर पडी | प्रभु को देखते ही राजकुमार को जातिस्मरण ज्ञान की प्राप्ति हो गई | उसने ज्ञान के प्रकाश में जाना कि भगवान एक वर्ष से उपवासी हैं | ज्ञानबल से भिक्षाविधि का बोध उसे प्राप्त हुआ | उसने प्रभु को भिक्षा के लिए प्रार्थना की | एषणीय आहार का सुयोग पाकर प्रभु ने करांजलि फ़ैला दी |श्रेयांस ने इसु रस से भगवान का पारणा कराया | एक हजार वर्षो की साधना के पश्चात फ़ाल्गुन क्रष्ण एकादशी के दिन पुरिमताल नगर के बाहर शकटमुख नामक उधान में वट व्रक्ष के नीचे ध्यानस्थ प्रभु रिषभ ने घनघाती कर्मों का क्षय कर केवल-ज्ञान ,केवल-दर्शन प्राप्त किया | त्रिलोकों में आलोक और सुख का प्रसार हो गया | देवों ,देवियों और भरत आदि नरेन्दों ने उपस्थित होकर प्रभु का कैवल्य महोत्सव मनाया |

भगवान रिषभदेव के धर्मशासन में लाखों भव्य जीवों ने आत्म-कल्याण का पथ- प्रशस्त करके निर्वाण रुपी परम लाभ प्राप्त किया | प्रभु रिषभ काल की द्रष्टि से आदि गुरु हैं | उन्होनें विश्व को अकर्मण्यता के अन्धकार से निकालकर कर्म और धर्म के पथ पर चलने के लिए प्रेरित किया | कर्म और धर्म -इन दोनों द्रष्टियों से वे विश्व के आदि संस्कर्त्ता , प्रवर्तक और सदगुरू हैं | अध्यात्म के आलोक की प्रथम किरण उन्हीं से प्रकट हुई | उनके बाद के तेईसों तीर्थंकर ने उन द्वारा प्रकट सत्य को पुन: -पुन: उदघाटित किया | जो प्रभु रिषभ ने कहा , वही शेष तीर्थंकरो ने भी कहा | वर्तमान मे उपलब्ध आगम वाड:मय भी उसी सत्य का उदघोष है |

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