पूज्य उपाध्याय श्री यशोविजयजी
श्री यशोविजयजी महाराजा श्री यशोविजयजी म.सा. का बचपन का नाम जसवंत था। उनका जन्म कनोडा गांव में हुआ था उनके पिता का नाम नारण भाई और माता का नाम सौभाग्य देवी था। उनके भाई का नाम पदमसी था। उनकी माता सौभाग्य देवी को भक्तामर सुनने के बाद अनाज और पाणी लेने का नियम था। लगातार तीन दिन बारिस हुई। इसलिये वो भक्तामर सुनने के लिये उपाश्रय नही जा सके।
उन्होंने तीन दिन उपवास किया।
जसवंत माता को पूछते है कि आप क्युं खाना नही खाते हो ? तब माता कहती है कि भक्तामर सुने बिना में खाना नही खाने का नियम है।
जसवंत कहता है कि में आपको भक्तामर सुनाउ ? तब माता कहती है कि आता हो तो सुनावो। जसवंत 44 गाथा का भक्तामर सुनाता है।
सुनते ही माता की आंख में आंसू आते है। गांव में पंन्यास श्री नयविजयजी म.सा. आते है। साहेबजी को यह बात मालूम पड़ती है।
जसवंत और उनकी माता साहेबजी को वंदन करने उपाश्रय आते है। श्री नयविजयजी म.सा. जसवंत को कहते है कि तुमको भक्तामर आता है ? जसवंत भक्तामर बोलता है।
भक्तामर सुनकर श्री नयविजयजी म.सा. को आश्चर्य होता है कि इतने छोटे बच्चे को भक्तामर आता है।
श्री नयविजयजी म.सा. माता को कहते है कि " यह बालक को शासन के चरणे धरा जाये तो सभी कल्याण करेगा "।
माता जसवंत को दीक्षा देने के लिये अनुमति देती है।
जसवंत की पाटण में दीक्षा होती है। श्री नयविजय म.सा. के शिष्य बनते है।
श्री यशोविजयजी म.सा. की वडी दीक्षा पाटण में आचार्य श्री विजयदेवसूरि के पास होती है।
विक्रम संवत 1689 से 1699 के 10 वर्ष के समय काल में साधु जीवन के जरुरी धार्मिक , संस्कृत , पाकृत , व्याकरण , न्याय आदि साहित्य का अभ्यास पूर्ण हो गया।
ऐसे प्रतिभा सम्पन्न पुरुष को 6 माह का अभ्यास 15 दिन में पूर्ण करते है। साधु जीवन की आयुष्य मर्यादा में जो पढ़ना था वो सब पढ़ लिया।
श्री नयविजयजी और श्री यशोविजयजी अहमदाबाद आते है।
श्री यशोविजयजी म.सा. संघ के सामने 8 अवधान करते है। यह देखकर श्रावक धनजी शूरा कहता है कि यह दूसरे हेमचंद्राचार्य बन शकते है।
श्री नयविजयजी म.सा. को कहा कि उनको काशी में पढ़ने भेजा जाये तो अच्छा रहेगा।
उनका सभी पढ़ाने का खर्च में करूंगा। यशोविजयजी काशी जाने से पहले विक्रम संवत 1701 का चातुर्मास कपडवंज के पास आंतरोली गांव में करते है।
वहा स्वाद्वादरहस्य ग्रंथ की रचना करते है। श्री यशोविजयजी काशी जाने से पहले गंगा नदी के पास सरस्वती माता की साधना करते है।
काशी में पंडित के पास 3 वर्ष पढ़ते है। वो पंडित 1 दिन का 1 रुपिया लेता था। वो सभी पैसे धनजी शूरा देते है।
काशी में वादी के साथ वाद किया और उनको हराया।
इसलिए काशी के पंडितो ने उनको " न्यायाचार्य " और " न्यायविशारद " का बिरुद दिया। वहा से यशोविजयजी आग्रा गये।
वहा 4 वर्ष रहे। यशोविजयजी म.सा. विक्रम संवत 1710 में गुजरात वापस आये। गुजरात आने के बाद 7 मुनिवरों के साथ श्री नयचक्र ग्रंथ का पुनलेखन किया।
विक्रम संवत 1718 में श्री विजयप्रभसूरि महाराज साहेब के हस्ते उनको उपाध्याय पद दिया। पूज्य आनंदघनजी और श्री यशोविजयजी म.सा. का मिलन आबु में हुआ था।
श्री यशोविजयजी म.सा. आनंदधनजी के पर अष्टपदी की रचना की है। श्री यशोविजयजी म.सा. ने न्याय के 108 ग्रंथ बनाये है। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने 2 लाख श्लोक प्रमाण बनाये है।
अध्यात्मसार , नयरहस्य , नवप्रदीप , ज्ञानबिंदु , ज्ञानसार , प्रतिमा शतक , जंबु स्वामी का रास , समाधि शतक आदि अनेक ग्रंथो की रचना की है।
350 गाथा का स्तवन , 150 गाथा का स्तवन , तीन चोवीसी , सज्जाय आदि अनेक की रचना की है। श्री पाल राजा का रास श्री यशोविजयजी म.सा. ने पूर्ण किया है।
श्री यशोविजयजी म.सा ने अंतिम चातुर्मास डभोई में किया। विक्रम संवत 1743 , मागसर सुद 11 के दिन डभोई में कालधर्म हुआ।
डभोई में श्री यशोविजयजी म.सा. का गुरु मंदिर बनाया गया है।
उन्होंने तीन दिन उपवास किया।
जसवंत माता को पूछते है कि आप क्युं खाना नही खाते हो ? तब माता कहती है कि भक्तामर सुने बिना में खाना नही खाने का नियम है।
जसवंत कहता है कि में आपको भक्तामर सुनाउ ? तब माता कहती है कि आता हो तो सुनावो। जसवंत 44 गाथा का भक्तामर सुनाता है।
सुनते ही माता की आंख में आंसू आते है। गांव में पंन्यास श्री नयविजयजी म.सा. आते है। साहेबजी को यह बात मालूम पड़ती है।
जसवंत और उनकी माता साहेबजी को वंदन करने उपाश्रय आते है। श्री नयविजयजी म.सा. जसवंत को कहते है कि तुमको भक्तामर आता है ? जसवंत भक्तामर बोलता है।
भक्तामर सुनकर श्री नयविजयजी म.सा. को आश्चर्य होता है कि इतने छोटे बच्चे को भक्तामर आता है।
श्री नयविजयजी म.सा. माता को कहते है कि " यह बालक को शासन के चरणे धरा जाये तो सभी कल्याण करेगा "।
माता जसवंत को दीक्षा देने के लिये अनुमति देती है।
जसवंत की पाटण में दीक्षा होती है। श्री नयविजय म.सा. के शिष्य बनते है।
श्री यशोविजयजी म.सा. की वडी दीक्षा पाटण में आचार्य श्री विजयदेवसूरि के पास होती है।
विक्रम संवत 1689 से 1699 के 10 वर्ष के समय काल में साधु जीवन के जरुरी धार्मिक , संस्कृत , पाकृत , व्याकरण , न्याय आदि साहित्य का अभ्यास पूर्ण हो गया।
ऐसे प्रतिभा सम्पन्न पुरुष को 6 माह का अभ्यास 15 दिन में पूर्ण करते है। साधु जीवन की आयुष्य मर्यादा में जो पढ़ना था वो सब पढ़ लिया।
श्री नयविजयजी और श्री यशोविजयजी अहमदाबाद आते है।
श्री यशोविजयजी म.सा. संघ के सामने 8 अवधान करते है। यह देखकर श्रावक धनजी शूरा कहता है कि यह दूसरे हेमचंद्राचार्य बन शकते है।
श्री नयविजयजी म.सा. को कहा कि उनको काशी में पढ़ने भेजा जाये तो अच्छा रहेगा।
उनका सभी पढ़ाने का खर्च में करूंगा। यशोविजयजी काशी जाने से पहले विक्रम संवत 1701 का चातुर्मास कपडवंज के पास आंतरोली गांव में करते है।
वहा स्वाद्वादरहस्य ग्रंथ की रचना करते है। श्री यशोविजयजी काशी जाने से पहले गंगा नदी के पास सरस्वती माता की साधना करते है।
काशी में पंडित के पास 3 वर्ष पढ़ते है। वो पंडित 1 दिन का 1 रुपिया लेता था। वो सभी पैसे धनजी शूरा देते है।
काशी में वादी के साथ वाद किया और उनको हराया।
इसलिए काशी के पंडितो ने उनको " न्यायाचार्य " और " न्यायविशारद " का बिरुद दिया। वहा से यशोविजयजी आग्रा गये।
वहा 4 वर्ष रहे। यशोविजयजी म.सा. विक्रम संवत 1710 में गुजरात वापस आये। गुजरात आने के बाद 7 मुनिवरों के साथ श्री नयचक्र ग्रंथ का पुनलेखन किया।
विक्रम संवत 1718 में श्री विजयप्रभसूरि महाराज साहेब के हस्ते उनको उपाध्याय पद दिया। पूज्य आनंदघनजी और श्री यशोविजयजी म.सा. का मिलन आबु में हुआ था।
श्री यशोविजयजी म.सा. आनंदधनजी के पर अष्टपदी की रचना की है। श्री यशोविजयजी म.सा. ने न्याय के 108 ग्रंथ बनाये है। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने 2 लाख श्लोक प्रमाण बनाये है।
अध्यात्मसार , नयरहस्य , नवप्रदीप , ज्ञानबिंदु , ज्ञानसार , प्रतिमा शतक , जंबु स्वामी का रास , समाधि शतक आदि अनेक ग्रंथो की रचना की है।
350 गाथा का स्तवन , 150 गाथा का स्तवन , तीन चोवीसी , सज्जाय आदि अनेक की रचना की है। श्री पाल राजा का रास श्री यशोविजयजी म.सा. ने पूर्ण किया है।
श्री यशोविजयजी म.सा ने अंतिम चातुर्मास डभोई में किया। विक्रम संवत 1743 , मागसर सुद 11 के दिन डभोई में कालधर्म हुआ।
डभोई में श्री यशोविजयजी म.सा. का गुरु मंदिर बनाया गया है।
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